Tuesday, 14 June 2016

बात इतनी सी नही ... ( ३ ) पारा



जैसेही छिद्र मिलता है , धुवां मुट्टीसे निकल जाता है l वैसे सुख भी स्थायी नही l हमेशा हात से छूट जाता है l स्थायी रूप से सम्राट भी इसे नही पकड सके l और हम भी सुख को स्थायी रूप से पकडने मे असमर्थ है l हमारे इर्दगिर्द और दूरदूर तक चारो दिशाओं मे फैला हुवा समाज युगों से एक ही दिशा की और भागा जा रहा है l उस एकमात्र दिशा का नाम है ' सूख ' l सूख की दिशा मे हम सब यात्रा कर रहे है l लेकीन सुख की प्राप्ती की अंतिम उद्घोषणा अब तक किसने नही की l मेरा अपना निजी अनुभव है , की आज की तारीख तक मै सुखी नही हुवा l जो आज तक नही मिल सका वो कैसे कल मिल सकता है ? हाँ आज तक सुख का भ्रम मात्र मिला है l भ्रम से मै पुलकित हुवा हूं l सभी होते है l लेकीन ये पुलकित होना स्थायी नही बन पाया l और यही है सबका दुख l 

 ऐसा क्यों ? क्या है सुख ? मै तब स्कूल जाता था l कला मेरा चहेता विषय था , लेकीन मुझमे जिज्ञासा थी , इसलीये मुझे विज्ञान विषय मे भी थोडी रुचि थी l देसाई सर - जो हमे विज्ञान पढाते थे l वे संगीत मे भी रुची रखते थे l इसलीये मेरे मन मे उनके प्रति अधिक आदर था l विज्ञान के पिरीयड को भौतिक शास्त्र के किसी टॉपिक को सर समझा रहे थे , की अचानक उनको कुछ याद आया l क्यों न बच्चों को प्रयोगशाला मे ले जाकर समझाया जाय ? सर हम सब बच्चोंको  प्रयोगशालामे ले गये l एक बोतल निकाली  l बोतल खोलकर सर ने ,  उसमे से जो निचे गिरने वाला था , उसको झेलने के लिये हात खुले किये l चांदी जैसा कुछ द्रवरूप पदार्थ बोतल से , टीचर के हात मे गिरा l असंतुलन की वजहसे थोडा द्रव नीचे फर्श पर भी गिर गया l 

मैने पुछा , ' सर , ये चांदी द्रवरूप कैसे ? ' 
' ये द्रवरूप चांदी नही है l इसको पारा कहते है l '  फिर आधा घंटा सर , पारे के बारे मे कितनी सारी रोचक मालूमात देते रहे l मै और मेरे सारे दोस्त उस पारे को उंगलीयोंमे पकडते रहे l फर्श पर गिरे पारे के कुछ कणो को उंगलीयोंसे पकडने की कोशीस की l पर पारा हात नही आया l
 ' लाख कोशिसे करो , हातोंमे नही आना ही पारे का स्वभाव है l'  पिरीयड समाप्त होते होते देसाई सर इतना तो कह गये l      

कितने साल बीत गये इस घटना को l  विज्ञान के उस पिरीयड मे देसाई सर ने जो पारा दिखाया वो तो सचमुच का पारा था l आज क्यु लग रहा है , की पारा भी सुख का प्रतिक है l दोनो का स्वभाव एक जो है l जिसे छुवा जा सकता है , जो दिखता है , फिर भी जिसे स्थायी रूपसे उंगली मे पकडा नही जा सकता , वही तो सुख है l पारा तो बस प्रतिक हे सुख का l हात नही आता l