Friday 21 April 2017

(सुप्रसिद्ध हिंदी अनुवादीका सुनीताजी डागाजी ने मेरी काविताका किया हुवा अनुवाद. थँक्स सुनीताजी )

नहीं रह पाएँगी बारिश बरसे बिना...

युगों-युगों की तृष्णा के
जमे हुए गुलाबी कीचड़ से
साकार तुम्हारे होंठ...
होते हैं विलग
जैसे चटख जाती है
बारिश की राह देखती
आकुल जमीन...

कसम से,
तभी तो सुझते हैं
ध्यानस्थ आसमान के गले को
बारिश के गीत...


कई-कई दफा छानी हुई
महीन मिट्टी-सी...
निरीह प्रतिक्षा को समेटे हुई
तुम्हारी पंखुड़ियों-सी मिटी आँखें
बैठी हो तुम निश्चिंत मुंदे हुए..
विश्वास है तुम्हें...
किसी आहट के लगते ही
खुल जाएँगी वे अपने-आप
तब हाजिर हो जाएँगी बारिश

थरथराती हुई तुम्हारी बरौनियों पर...
सहलाएगी तुम्हारी मुक्त लटों को
धाराओं की सहस्त्रों अधीर उंगलियाँ...
बालों के यह मयूर-पंख
बहक जाएँगे फिर बौराए हुए...
आ रही है बारिश
इसका अंदाजा लेते हुए...
किसी हटयोग की तरह
यह प्रतिक्षा-योग तुम्हारा
बना रहा है तुम्हें सर्वांग-सुंदर

रूपसी,असाधारण तुम्हारी
मायावी सुंदरता
नहीं रह पाएँगी किसी अरूप को
रूपवान किए बिना
नहीं रह पाएँगी बारिश बरसे बिना।

अनुवाद - सुनिता डागा
मूल मराठी कविता ..कमलाकर देसले


मूलकविता 

■ पाऊस आल्याशिवाय रहाणार नाही.....
युगांच्या तहानेचा
गुलाबी चिखल गोठवून
साकारलेले तुझे ओठ ...
पावसाची निरातूर वाट पहाणार्या
जमिनीला जावेत तडे
तसे विलगतात ...
शपथ सांगतो,
तेव्हाच सुचतात ...
ध्यानस्थ आभाळाच्या गळ्याला
पाऊसगाणी ...


खूप वेळा वस्त्रगाळ केलेल्या
अलवार मातीसारखी ...
निरागस प्रतिक्षा एकवटून
बंद केलेले तुझे फुलपंखी डोळे ;
तू निश्चिंत बसली आहेस लावून ....
तुला खात्री आहे..
मनाला तुझ्या सासुल लागल्याबरोबर ;
ते उघडतील आपोआप
पाऊस ,तेव्हा हजर असेल
थरथरत तुझ्या पापण्यांवर ...


तुझ्या मुक्त बटातून फिरतील
धारांची अधीर बोटे सहस्त्र ...
ही केसांची मयूरपिसे
पिसे लागल्यासारखी बहकलीत ..
पाऊस येतो आहे
याचा अंदाज घेत ...
हटयोगासारखा
तुझा हा प्रतिक्षायोग
तुला सर्वांगसुंदर करतो आहे.




तुझे असामान्य मायारूप ;
अरूपाला रूपवान
केल्याशिवाय रहाणार नाही .
पाऊस आल्याशिवाय रहाणार नाही.

-कमलाकर आत्माराम देसले

Tuesday 14 June 2016

बात इतनी सी नही ... ( ३ ) पारा



जैसेही छिद्र मिलता है , धुवां मुट्टीसे निकल जाता है l वैसे सुख भी स्थायी नही l हमेशा हात से छूट जाता है l स्थायी रूप से सम्राट भी इसे नही पकड सके l और हम भी सुख को स्थायी रूप से पकडने मे असमर्थ है l हमारे इर्दगिर्द और दूरदूर तक चारो दिशाओं मे फैला हुवा समाज युगों से एक ही दिशा की और भागा जा रहा है l उस एकमात्र दिशा का नाम है ' सूख ' l सूख की दिशा मे हम सब यात्रा कर रहे है l लेकीन सुख की प्राप्ती की अंतिम उद्घोषणा अब तक किसने नही की l मेरा अपना निजी अनुभव है , की आज की तारीख तक मै सुखी नही हुवा l जो आज तक नही मिल सका वो कैसे कल मिल सकता है ? हाँ आज तक सुख का भ्रम मात्र मिला है l भ्रम से मै पुलकित हुवा हूं l सभी होते है l लेकीन ये पुलकित होना स्थायी नही बन पाया l और यही है सबका दुख l 

 ऐसा क्यों ? क्या है सुख ? मै तब स्कूल जाता था l कला मेरा चहेता विषय था , लेकीन मुझमे जिज्ञासा थी , इसलीये मुझे विज्ञान विषय मे भी थोडी रुचि थी l देसाई सर - जो हमे विज्ञान पढाते थे l वे संगीत मे भी रुची रखते थे l इसलीये मेरे मन मे उनके प्रति अधिक आदर था l विज्ञान के पिरीयड को भौतिक शास्त्र के किसी टॉपिक को सर समझा रहे थे , की अचानक उनको कुछ याद आया l क्यों न बच्चों को प्रयोगशाला मे ले जाकर समझाया जाय ? सर हम सब बच्चोंको  प्रयोगशालामे ले गये l एक बोतल निकाली  l बोतल खोलकर सर ने ,  उसमे से जो निचे गिरने वाला था , उसको झेलने के लिये हात खुले किये l चांदी जैसा कुछ द्रवरूप पदार्थ बोतल से , टीचर के हात मे गिरा l असंतुलन की वजहसे थोडा द्रव नीचे फर्श पर भी गिर गया l 

मैने पुछा , ' सर , ये चांदी द्रवरूप कैसे ? ' 
' ये द्रवरूप चांदी नही है l इसको पारा कहते है l '  फिर आधा घंटा सर , पारे के बारे मे कितनी सारी रोचक मालूमात देते रहे l मै और मेरे सारे दोस्त उस पारे को उंगलीयोंमे पकडते रहे l फर्श पर गिरे पारे के कुछ कणो को उंगलीयोंसे पकडने की कोशीस की l पर पारा हात नही आया l
 ' लाख कोशिसे करो , हातोंमे नही आना ही पारे का स्वभाव है l'  पिरीयड समाप्त होते होते देसाई सर इतना तो कह गये l      

कितने साल बीत गये इस घटना को l  विज्ञान के उस पिरीयड मे देसाई सर ने जो पारा दिखाया वो तो सचमुच का पारा था l आज क्यु लग रहा है , की पारा भी सुख का प्रतिक है l दोनो का स्वभाव एक जो है l जिसे छुवा जा सकता है , जो दिखता है , फिर भी जिसे स्थायी रूपसे उंगली मे पकडा नही जा सकता , वही तो सुख है l पारा तो बस प्रतिक हे सुख का l हात नही आता l  

Wednesday 25 May 2016

बात इतनी सी नही ... ( २ )


धुवा ... 

मेरे गाव मे किसी आध्यात्मिक गुरु का सत्संग होने जा रहा था l अभी महाराजजी व्यासपीठ पर आने को कुछ समय बाकी था l शिष्य और भक्त लोग आपनी अपनी सेवा मे लगे हुए थे l कुछ महिलाये व्यासपीठ के सामने रंगोली चितारने का काम कर रही थी l एक शिष्य व्यासपीठ के चारों और धूपपात्र रख रहा था l फिर थोडी ही  देर मे उसने धूपपात्र मे जलते हुए अंगारोपर धूप की राख डाली l सब तरफ एक सुगंधी धुवा उठा l वातावरण सुगंधित और भक्तिमय हो गया l संयोगवश मै उधरसे गुजर रहा था l मेरी दृष्टी अचानक एक नन्हे बच्चे पर पडी  l मेरी वजह से उसके स्वाभाविक नटखटपण मे विक्षेप आने न पाये ,इसलिये मै थोडे दूर जाकर बैठ गया l वहा से मैने देखा , की ... धुपपात्र से निकलने वाले धुए के बादल उस बच्चे को सम्मोहीत कर रहे थे l आकाश मे देखे जाने वाले बादल जैसे जमीन पर उतर आये हो l अचानक वो नन्हा बच्चा धुपपात्र के पास गया l अपने नन्हे हातो से उसने उस धुए के बादल को अपनी नन्ही मुट्टी मे पकडा l उसका चेहरा खुशी से उछल रहा था l बंद मुट्टी को पकडे  वो बच्चा दौडकर पास ही बैठे उसके पिताजी के पास गया
" पापा , देखो मैने मुट्टी मे क्या पकडा ? "
दिखावो तो l उसके पिताजी बोले
नही पहले चॉकलेट l बच्चा बोला
उसके पिताजी ने सच मे जेब से चॉकलेट निकाली l और बच्चे ने अपनी बंद मुट्टी खोली l मुट्टी बिलकुल खाली थी l













' अरे , ये कैसे हुवा ?  कहा गया धुवा ? मैने तो पक्का पकडा था मुट्टी मे l ये गायब कैसे हो गया ? '  बच्चे के चेहरे पर कितने सारे प्रश्न चमक रहे थे l और साथ साथ कुछ कुछ निराशा भी

मेरा बैठे बैठे मनोरंजन तो हुवा ही l लेकीन मै भी उस नन्हे बच्चे के जैसे सोच मे पड गया
हम सब भी क्या बच्चे नही ? वो छोटा बच्चा है और हम बडे बच्चे l छोटे - बडे का फर्क भुला देते है , तो हम भी बच्चे जैसा ही कुछ कर रहे है l बच्चा मुट्टी मे धुवां पकड रहा है , और हम मुट्टी मे सुख का धुवा  पकडने मे  व्यस्त l धुवां सिवाय भ्रम के और कुछ नही l ये सत्य बच्चा कभी न कभी जान भी जायेगा l लेकीन हमारा क्या ? हम तो जानकर भी अनजाने बन रहे है l कितनी बार मुट्टी खोली हमने भी l सुख का बादल हमेशा गायब होता हुवा पाया है हमने l बच्चा एक , दो , तीन बार धुवा पकडने का प्रयोग करते करते ' धुवां पकडना बस एक भ्रम है l ' इस सत्य को जान लेगा , और दुबारा वही तथ्यहीन बात करना छोड भी देगा l लेकीन हम ? हम जानकर भी वही गलती बार बार कर रहे है l इस छोटे से अनुभव मे बच्चा तो निमित्त है बोध का
क्यो न बच्चे से सीख ले , की जितना जल्दी हो सके भ्रम के सच को जान लिया जाय

Thursday 19 May 2016

बात इतनी सी नही...(1)

   जीवन और जिंदगी ये दो शब्द ; लेकीन इनके अर्थोका भेद बहुत बडा है l एक जमीन तो दूसरा आसमान है l जिंदगी की रेल जन्म से शुरू होती है और मृत्यू पर रुक जाती है l जीवन की रेल नही होती l क्यों की रेल का प्रस्थान होता है , और गंतव्य भी होता है रेलका l इस लिये जीवन की रेल कहना ठीक नही होगा l जीवन बस एक गती है l एक सनातन प्रवाह कहो l गती जीवन का स्वभाव भी है और परिचय भी l जीवन का आरंभ नही , इस लिये जीवन का अंत नही होता है l 
    
             ऋतु आते है जाते है l धूप , ठंड और वर्षा फिर वही चक्र l सुबह , दोपहार , शाम फिर रात फिर सुबह , फिर वही चक्र l बज का फुटना , पौधा होना , पेड होना , फूल और फल लगना l फिर नये बीज ... फिर से वही चक्र l बारीश का गिरना , झरनो का बहना , नदी का नृत्य , सागर मे समर्पण , सागर की भाप , बादलो का उमडना फिर वर्षा l फिर वही चक्र l जन्म , व्याधी , जरा और मृत्यू l फिर वही चक्र l इस स्वयंचलित चक्र का बिना रुके अव्याहत घुमने का नाम जीवन है l जीवन चलने का नाम .... चालते रहो सुबह शाम .... इस फिल्मी गीत मे भी जीवन की गती को दोहराया गया है 
           
             कहो तो जीवन एक बडी से बडी जटील घटना है l जीवन सबसे बडा रहस्य है l जितना इसे सुलझने का प्रयास करते जावोगे उतने ही हम उलझते जाते है l विज्ञान और है भी क्या ? शिवाय उलझने और सुलझने से ? फिर ये सुलझ और उलझन बन जाती है l विज्ञान जीवन के राहस्यों को नग्न करने के प्रयासों से अधिक कुछ भी नही l और सबसे बडा मजाक तो ये है , की विज्ञान अपनी हार नही मानता l और जीवन को जितना कठीन है l जीत की नशा उतरती है , तो हो सकता है , हम जीवन के प्रति विनम्र हो सकते है l विनम्रता एक सुंदर कुंजी है , जिससे जीवन को जीता नही , किंतू थोडासा जाना जा सकता है l बच्चों जैसी सरल जिज्ञासा और साधूओ जैसी सरल विनम्रता हो तो जीवन का दर्शन हो सकता है l विज्ञान और वैज्ञानिक अभी नम्र नही हुए , इसी लिये खोजे जारी रहेंगी l जीवन के प्रति जिज्ञासा और विनम्रता ही जीवन के रहस्यों को जानने की योग्यता है l
               

              जीवन को जानने की शुरुवात जिंदगी को जानने से शुरू होती है l जिंदगी एक अर्थमे छोटा जीवन होती है l सुबह से लेकर शामतक हम से और सब लोगों से संबंधित कुछ न कुछ घटनाये घटती है l ये घटनाये केवल मानवीय नही किंतू प्राणी , पक्षी आदि जगत मे और पुरे अस्तित्व मे क्षण प्रतिक्षण घटती है l हम यदी जिज्ञासा की आंखों से और विनम्रतासे वर्तमान को देखे . अनुभव करे तो धीरे धीरे स्थूल घटनाओ के पिछे कुछ आनंददायी जीवनदर्शन होने आरंभ हो जायेंगे l सुख दुख से , संघर्षसे भरी जिंदगी झेलनी आसान हो जायेगी l जिंदगी बोझ नही , लेकीन अब की भागदौड की रफ्तार मे जिंदगी बोझ के अलावा रह भी क्या गयी है ? चलो हम और आप मिलकर जिंदगी की कडवाहट को कम करे l इसके श्रेयस्कर बोध को जानने का प्रयास करते है l